घुमंतू चरवाहों की गायों से सम्बन्धित समस्याएं एवं सुझाव
Problems and Suggestions related to the cows of the Raibari (semi-nomadic tribe) nomadic herders of Rajasthan
निम्बा राम (nimbaramjlor@gmail.com) द्वारा संकलित
पश्चिमी राजस्थान में हम रैबारी (अर्ध घुमंतू
जनजाति) बहुतायात में रहते है। वस्तुत:
हम रेगिस्तान की एक चरवाहा जनजाति है जो कि सदियों से अर्ध-घुमंतू और घुमंतू जीवन
शैली में रहते आये है। भारतवर्ष में ऊंट को पालतू प्राणी बनाने का श्रेय रैबारी
जनजाति को ही है। हमारी जीवन पद्धत्ति मुख्य रूप से ऊंट, भेड़, बकरी और गाय
चराना रहा है और अभी भी यही है। इस सन्दर्भ में यह उल्लेख करना यहां पर उचित होगा
कि जालोर, सिरोही, पाली और बाड़मेर
के कुछ गावों के रैबारी केवल गाय चराने का ही कार्य करते है और अर्ध-घुमंतू चरवाहा का जीवन व्यतीत करते हुए
गायों के घेरे (झुंड, एक झुण्ड में करीब 100-150 गाय होती है) के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर चारे के तलाश में निरंतर
प्रवास(माइग्रेशन) करते रहते है।[1]
प्रवास का क्षेत्र मौसम (सीजन) और चरागाह के
आसान उपलब्धता के आधार पर तय होता है।
यह प्रवास राजस्थान के समीपवर्ती
सारे राज्यों से होकर गुजरता है। यह हजारों वर्षों पुरानी उस परम्परा का
हिस्सा है जिसमें गायों के गले में रस्सी
डालना, बाड़े-बंदी करना, गाय को खूंटे से बांधना आदि को गायों की अपनी स्वतंत्रता और उनकी निजता
पर हमले के समान महापाप माना गया है। हमारी जनजाति इसी परम्परा को सदियों से
प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी आज भी जीवित बनाये रखने हेतु घुमंतू जीवन
शैली व्यतीत कर रही है। इतना ही नहीं, हम गायों के
संदर्भ में उनकी पारिवारिक रिश्तेदारी का भी पूर्ण ध्यान रखते है और कभी भी एक खोदा (सांड) को
एक घेरे ( झुंड ) में तीन वर्ष से अधिक और
उसके बाद दोबारा नहीं रहने देते है , इससे पहले ही
उसका दूसरे घेरे ( झुंड ) के खोदा ( सांड ) के बदले में विनिमय कर लेते है। यह तो एक दृष्टान्त मात्र है , परन्तु गायों के
सन्दर्भ में हम बहुत सारी छोटी-छोटी बातों (गायों की सेवा
सर्वोपरि, प्रत्येक गाय को उसके विशिष्ट नाम से पुकारना
ताकि प्रत्येक गाय चरवाहे के प्रति लगाव और अपनापन महसूस करें, गाय की सुंदरता, मुंह का रूप , सींग का आकर
प्रकार , ललाट, शारीरिक बनावट , आगे के पैर , पीछे के कूल्हे , कूबड़ की स्थिति, कूबड़ और ललाट
चक्रों की स्थिति, खुर का आकार , थनों की बनावट , पूँछ की लम्बाई , पूँछ बालों का
रंग और उनकी सघनता, संकरण /क्रॉस- ब्रीडिंग निषेध , प्रतिरोधक क्षमता, गाय को बेचते वक्त मालिक की गायों के प्रति लगाव
और भावना देखना, वृद्ध पशु नहीं बेचना , रैबारी चरवाहे के अलावा दूसरे व्यक्ति को गाय नहीं बेचना, दूध की दृष्टि से
गाय नहीं पालना आदि आदि ) को परम्परा के
तौर पर ध्यान में रखते हुए गायों को शुद्ध
अनुवांशिक रूप से हजारो हजारों वर्षों के निरंतर प्रयास से विकसित किया है। विश्व पटल पर हम एकमात्र ऐसे चरवाहे है।
2. हम भगवान पशुपतिनाथ महादेव के वचनो की पालना में
चरवाहा के तौर पर जीवन जी रहे है, हमने पशु को
कभी व्यवसाय के तौर पर नहीं देखा, उन्हें कभी
खूंटो से नहीं बाँधा है।पशुधन हमारे परिवार के अभिन्न अंग होने के कारण पशुओ के
रहने के स्थान के साथ ही हमारा निवास स्थान भी लगा रहता है, निवास स्थान
दोनों (हम और हमारे पशु धन ) साझा करते है । सदियों से दूध और मादा जानवर बेचना
वर्जित रहा है। विश्वपटल पर भी हम एकमात्र ऐसी चरवाहा
जनजाति है जो पशुधन का मांस कभी नहीं खाती और हम पशुधन एवं अपने बच्चों में कभी
अंतर नहीं समझते। जिस प्यार से बच्चे का पालन होता है उसी प्यार से
पशुधन को भी ह्रदय से संजोय रखा जाता है। भारत के अर्धशुष्क क्षेत्र में पशुधन के
सरंक्षण में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हुए हम जैविक पशु उत्पाद प्रदान कराते
है।
3. लोग हमें सिंधु सभ्यता के संस्थापक[2] के
तौर पर जानते है, पर हमें इससे ज्यादा गर्व माननीय महोदय का ध्यान हमारी गायों की स्वदेशी
नस्लों "कांकरेज[3]"
और "नारी' की और आकृष्ट करते हुए होता है कि इन दोनों स्वदेशी
नस्लों की शुद्धत्ता को हमने सिंधु घाटी सभ्यता से आज दिन तक शुद्ध आनुवांशिक नस्ल
के रूप में संजो कर रखा है। गायों के साथ घुमक्क़ड़ जीवन यापन करना हमारी जीवन
पद्धत्ति रही है और हमने इसी जीवन पद्धत्ति के माध्यम से कांकरेज और नारी नामक
गायों की विशुद्ध नस्ल को हजारों हजारों वर्षों से संरक्षित किया है। परन्तु बदलते
युग ने हमारे और गायों के जीवन में जो भूचाल लाया है, उसका सम्पूर्ण
वर्णन हम कभी भी बयान नहीं कर सकते। क्योंकि जैसे गायों के भाव हमारे सिवा कोई पढ़ नहीं सकता , इसी तरह शिक्षा
के अभाव में हम भी अपने भाव पूर्ण रूप से
गायों के भावों के साथ व्यक्त नहीं कर सकते। आज हम दोनों ( गाय और चरवाहे) बहुत
सारी साझा समस्याओं से जूझ रहे है, हमारे प्रति सहानुभूति दिखाने वाले तो बहुत है पर
असल में सरंक्षण का हाथ रखने वाला कोई हमें दिखाई नहीं देता जो हमारी जीवन
पद्धत्ति को पहचान कर हम और हमारी गायों के लिए कुछ कर सकें। फिर भी 'आशा अमर धन है' और आपमें, हमें आशा की किरण प्रतीत होती है इसलिए हम और
हमारी गायों से सम्बंधित समस्याएं और
सुझाव आपके समक्ष इस पत्र के माध्यम से प्रकट कर रहे है।
4. समकालीन विश्व और हमारी समस्याएं: समकालीन विश्व की बदली हुई प्रस्थितियों ने हमारे और हमारी गायों के समक्ष जो समस्याएं उत्पन्न की है, उसका संक्षिप्त
में विवरण इस प्रकार है :
4.1 हम चरवाहों के
खिलाफ बड़े पैमाने पर फैलाये गए तीन मिथकों[4] (Pastoralists
degrade the environment because they hoard animals, Pastoralists must be
settled for their own good and to preserve land for other uses, and
Pastoralists create conflict ) से नीति निर्माता प्रभावित होने
के कारण आज दिन तक चरवाहों के प्रति कोई स्पष्ट ‘चरवाहा नीति'[5] या 'राष्ट्रीय चरवाहा नीति' नहीं बन पाई है, जो कि चरवाहों की सारी समस्याओं के निराकरण का आधार स्तम्भ हो सकती है।
4.2 कृषि कार्यों में आये यांत्रिक परिवर्तन के कारण बैलों की भूमिका कृषि कार्य में
नगण्य हो गई है, इससे बैलों के उपयोग की समस्या उत्पन्न
हो गई है। आज के दिन बैलों की खेती कार्यों में मांग नगण्य होने के कारण हमें अपने गायों के नर बैलों को भी अलग से चराना पड़ता है और इनको मुक्त
छोड़ने पर किसानों के खेतों में यह नुकसान
करते है। गायों के झुंड के साथ रखने पर यह गायों को परेशान करते है और चरने
नहीं देते है। न हीं बैलों के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था सरकार ने की है। यही कारण
है कि किसानों ने गाय रखना छोड़ दिया है, पारंपरिक
गाय बेल्ट ( जैसे कि सिंधु सभ्यता
क्षेत्र जो कि कांकरेज गाय-बैल के लिए
प्रसिद्ध था) आज भैंस बेल्ट में परिवर्तित होते जा रहा है। हमारी भी नई
पीढ़ी, हमारी हजारों वर्षों पुरानी गायों की
चरवाहा परम्परा को लेकर उत्साहित नजर नहीं
आती।
4.3 उभय प्राकृतिक
संसाधन (शामलात), जंगल, चरागाह , गोचर , राजकीय पड़त
भूमि , तालाब , पेड़ों की
अंधाधुंध कटाई और प्राकृतिक संसाधनों की उपज के सिकुड़ने( shrinking of commons) के कारण न केवल पशुधन बल्कि हम भी संकट में है। हमारी (रबारी चरवाहों) मौजूदगी पशु जैव विविधता के लिए बहुत
महत्वपूर्ण है जो कि पशुधन, पशुपालकों और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के बीच पीढ़ियों की जटिल
परस्पर क्रिया के माध्यम से विकसित हुई है ।
4.4 आज हम विभिन प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे है , जिनमे मुख्यत: जैविक खाद की जगह रासायनिक खाद के उपयोग के
कारण और उसको मिल रही सब्सिडी के कारण खेतिहर स्थायी किसानो
का पहले की तरह पारम्परिक सबंधो का अटूट नहीं रहना यानि घुमंतू चरवाहों के प्रति किसानो का लगाव का टूट जाना[6], चरागाह क्षेत्र का सिकुड़ जाना, औपनिवेशिक काल की नीतियों के कारण चरागाह क्षेत्रों का कृषि
क्षेत्रों में बदल जाना[7], भारत - पाकिस्तान विभाजन के कारण बहुत बड़े चरागाह पाकिस्तान
में चले जाना और सीमाओं का बंद हो जाना[8], उभय उपज संसाधन[9]
और शामलात भूमि का सिकुड़ जाना[10]
, जंगलो में पारम्परिक चराई पर प्रतिबंधित, विलायती बबूलों द्वारा देशीय मरुस्थल वनस्पति पर
अतिक्रमण से मरुस्थलीय परिश्थितिकी का
नष्ट होना[11]। इन सबका हमारे पारम्परिक जीवन पद्धति और हमारे पशुओ पर
गंभीर प्रभाव पड़ा है। हमारे बच्चे इस पारम्परिक जीवन पद्धति के साथ इतनी सारी
कठिनाइयों के साथ जीना नहीं चाहते क्योंकि इस युग में सबका जीवन सरल हुआ है पर
हमारा नहीं। हमारे पास कोई वैकल्पिक रोजगार
नहीं होने के कारण हमारे बच्चे दिहाड़ी मजदूर होते जा रहे है। हम एक ऐसे मुकाम पर खड़े है जहां पर हम न ही
पारम्परिक जीवन पद्धत्ति का अनुसरण कर सकते है और न हीं अकुशल श्रमिक बनना चाहते है।
4.5 गोचर भूमि पर सरकारी योजनाओं के
नाम पर सरकार द्वारा और गैर सरकारी लोगों
द्वारा अनवरत अतिक्रमण हो रहा है। परन्तु अन्तत: गायों के लिए उपलब्ध चरागाह भूमि कम हो गई है। बहुत सारे चरागाह
क्षेत्र प्रतिबंधित हो गए है हालांकि इससे चरागाह भूमि की उर्वर शक्ति कम हो गई क्योंकि अब खाद , गोमूत्र से चरागाह
वंचित हो गए है और दीमक की समस्या पैदा हो गई है।
कठोर बीज वाले पौधे जिसे गाय जुगाली द्वारा ऊपरी कवच को मुलायम कर अंकुरण
में मदद करती थी, की संख्या भी घाट रही है। इसी तरह
पारम्परिक प्रवासी मार्गों को कानूनी
मान्यता नहीं होने के कारण आये दिन स्थानीय लोग रास्तों में हमें भिन्न भिन्न
तरीके से परेशान करते है। इसी तरह प्रवास के दौरान अत्याचार में स्थानीय पुलिस, प्रशासन और जन प्रतिनिधियों
द्वारा स्थानीय लोगों का हमेशा पक्ष लिया जाता है
चाहे वे गलत हो या सही। उनकी ही बात सुनी
जाती है , हमको सिर्फ कानून का भय बता कर
प्रताड़ना ही मिलती है।
4.6 आज रासायनिक आधारित खाद को सरकारी सरंक्षण है एवं सब्सिडी
के तौर पर पोषण मिल रहा है जबकि देसी
जैविक खाद को किसी प्रकार का सरंक्षण एवं पोषण नहीं है , इसलिए गायों के गोबर का न कोई
क्रेता सरकारी कंपनी है , न भण्डारण और विक्रय करने वाली
सरकारी कंपनी है। जैविक उत्पादों ( गोबर, गोमूत्र , दूध , घी आदि ) के उचित
सरंक्षण नहीं मिल पाने के कारण गायों का चरवाहा कार्य दिनों-दिन कठिन होता जा रहा है।
4.7 इसी तरह देश में जब कोई भी बड़े राष्ट्रीय राजमार्ग या राज्य राजमार्ग बनते है
तो देशी वनस्पति को हटाकर सौन्दर्यकरण वाली वनस्पति और पेड़ लगा दिए जाते है, दिखने में तो यह बहुत सुन्दर पेड़ लगते है परन्तु काम के कुछ नहीं है ( न इनकी
छाया है , न इन पर पक्षी घोसले बनाते है, न पत्ते पशुओं के खाने योग्य है , न सुखी लकड़ी कोई काम की ) जिनके सूखे पत्ते किसी भी पशु के भोजन के रूप
में काम नहीं आते। इससे देशीय वनस्पति भी नष्ट होती है और
पारस्थितिकी में पशु- पौधे के विनिमय की प्राकृतिक क्रिया भी बाधित होती है। इसी
कारण पहले इन मार्गों पर जब भी गाय चलती थी तो उनको कुछ न कुछ खाने की वनस्पति मिल
जाती थी लेकिन अब ऐसा नहीं रहा है। सड़क किनारे
पशुपयोगी वनस्पति और देशीय पौधों का सौंदर्य के नाम पर नष्टीकरण ( कटता है वृक्ष - खेजड़ी , केर , जाल /पीलू , नीम, बरगद , पीपल आदि और पर्यावरण के नाम पर लगता
है- बोगनवेलिआ) हो रहा है।
4.8 सरकार द्वारा संचालित देसी गौवंश संवर्धन
योजनाओं में हम घुमक्क्ड चरवाहों को नजरअंदाज कर दिया गया है क्योंकि सारी
योजना वाणिज्य को ध्यान में रखकर दुग्ध उत्पादन को केंद्र में रख कर बनाई गई है और
केवल उन्हीं गायों की गिनती योजनाओं में होती है। इसके कारण हमारे जैसे चरवाहे जो कि बिना दूध
वाले गायों (वृद्ध गाय , तीन साल तक की
बछड़ियाँ , विकृत अंगों वाली गाय , विकलांग गाय , बाँझ गाय इत्यादि ) को भी उतना ही स्नेह और ख्याल करते है जितना कि
दूध वाले पशुओं से , छूट गए है। हमको कोई भी योजना घुमंतू जीवन शैली
के अनुरूप प्रतीत नहीं होती है अथवा उसमें घुमंतू जीवन शैली के लिए विशेष प्रावधान
है, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। पुन, हमारे लिए कौनसी योजना बनाई गई है और उपयुक्त है, आज दिन तक हमको
नहीं मालूम है।
4.9 हमारे पशुओं का कोई बीमा नहीं होने के कारण भी कभी-कभी दुर्घटना में बहुत बड़ी आर्थिक क्षति
चरवाहों को हो जाती है जो कि भावनात्मक रूप से ऐसे दुर्घटनाओं के कारण पहले
से विचलित हो चूका होता है।
4.10 वैसे तो बाजार में देशी गाय के दूध और
A2 दूध के नाम पर खुली लूट मची है परन्तु असली देशी
और A2 दूध उत्पादन करने वाली गायों का दूध बिना किसी
मोल भाव किए न्यूनतम मार्किट रेट पर बिक रहा है।
जबकि हमारी गायों से ज्यादा कोई गाय जड़ी बूटी, विभिन्न प्रकार की वनस्पति और प्राकृतिक घास पर
निर्भर नहीं है , अत यदि आज के युग में यदि कोई शुद्ध देशी और पवित्र
A2 दूध पैदा करने वाली गायें है तो
उनमें से सबसे ऊपर हमारे जैसे अर्ध
-घुमंतू चरवाहों की गाय है। परन्तु हमारे गाय के दूध की कीमत आज दिन तक कोई पहचान
नहीं पाया है।
5. सुझाव:
चरवाह जीवन पद्धत्ति मरुस्थलीय पारिस्थितिकी की सबसे उत्तम
जीवन पद्धत्ति और उसके अनुरूप है।[12]
इसलिए इस जीवन पद्धत्ति को संवैधानिक सरंक्षण की जरुरत है।[13] हमारे पशुओं को उपयोगी पशुओं की श्रेणी में
दर्जा देकर सूचित करने की आवश्यकता
है। घुमंतू चरवाहा भी पशु उत्पाद पैदा
करते है, अत: हमे भी किसान का दर्जा देने से बहुत सारी सरकारी
योजनाओं तक हमारी पहुँच बढ़ सकती है। हमारे पशु उत्पादों को जैविक उत्पाद का दर्जा
देकर सरकार न्यूनतम मूल्य पर खरीदने की व्यवस्था से हमारी जीवन पद्धत्ति को
प्रोत्साहन मिलेगा। घुमंतू चरवाहों के लिए राष्ट्रीय चरवाहा नीति बने
और हमारे सदियों पुराने पारम्परिक प्रवासी
मार्गों को कानून के माध्यम से वैधानिक दर्जा मिलने से हमें प्रवास के दौरान
मार्गों पर प्रतिबन्ध या स्थानीय दखलंदाजी से छुटकारा मिलेगा। देशीय मरुस्थलीय पारिस्थितिकी को पुनर्जीवित करने का प्रयास
किया जाए। राष्ट्रीय स्तर पर हमारे लिए एक
राष्ट्रीय सहायता केंद्र[14]
की स्थापना हो जो हमारे घुमंतू चरवाहा जीवन में दिनों दिन की समस्याओं को सुलझाने
में मदद कर सके। रासायनिक खाद को मिल रही
सब्सिडी से दोगुनी सब्सिडी प्राकृतिक खाद को दी जाए।
सैक्स्ड सीमन तकनिकी[15]
के उपयोग से केवल बछियों का जन्म होता है
और अनचाहे नर बच्चे पैदा नहीं होंगे, इससे केवल गायों की संख्या में
वृद्धि होगी । सैक्स्ड सीमन आनुवंशिक रूप
से भी बेहतर और लाभदायक होता है। उत्तम
बीजदान से दूध उत्पादन में भी वृद्धि
होगी। अत: अनुदान आधारित, सैक्स्ड सीमन तकनिकी आधरित गुणवत्तापूर्ण बीज
घुमंतू गो-चरवाहों को उपलब्ध
करवाने से पारम्परिक देशीय नस्ल बचेगी, आवारा सांडों की संख्या घटेगी
और इससे दूध उत्पादन भी बढ़ेगा। प्रतिबंधित वन क्षेत्रों में पशु चारण प्रतिबंध के नकारात्मक प्रभावों पर भी
अनुसंधान हो ताकि मर्यादित पशु चारण के द्वारा इन प्रतिबंधित क्षेत्रों में भी नकारात्मक प्रभाव को काम किया जा सकें । प्रतिबंधित क्षेत्रों की उर्वर
क्षमता बढ़े और कठोर बीजों वाले पौधे भी जल्दी अंकुरित हो, इस हेतु गायों भी
को तय मर्यादित समयावधि में इन क्षेत्रों
में चरने में छूट प्राप्त हो। इससे
प्रतिबंधित क्षेत्रों की उर्वर शक्ति बढ़ेगी, दीमक की समस्या कम होगी और पादप-पशु विनिमय की प्राकृतिक
प्रक्रिया भी बाधित नहीं होगी। हमारी गायों
को दूध , खाद ( गोबर और गोमूत्र ) और बैल इत्यादि जैविक उत्पादों को सरकार न्यूनतम मूल्य पर डेयरी के माध्यम से खरीद करने की व्यवस्था करें, ताकि हम और हमारी गायों का भी
जीवन थोड़ा सरल तरीके व्यतीत हो सके। हम अर्ध-घुमंतू परिवार के सदस्यों के बच्चों के शिक्षा के लिए, पशुपालन में डिग्री या डिप्लोमा के लिए सरकार
कुछ योजनाएं बनाये ताकि हमारे बच्चे भी व्यावसायोन्मुखी शिक्षा ले सकें।
इसी तरह हमारे डेरों (टेम्पररी टैंट्स ) के साथ
मानव और पशु दोनों के लिए मोबाइल दवाई सुविधा लिंक करवाई जाए और इसके लिए
हमारे में से ही किसी 12वी पास बच्चे को सरकार डिग्री अथवा डिप्लोमा के द्वारा यह
जिम्मेदारी सौंपे ताकि हमारे अर्ध-घुमंतू जीवन शैली के अनुरूप हमें और हमारे गायों
को समय पर आधारभूत दवाई मिल सकें। हम पिछले हजारों वर्षों ( सिंधु घाटी सभ्यता से
) से 'कांकरेज' और 'नारी' नामक देशी गाय की नस्लों की विशुद्धतता बनाये रखे है। ऐसे विशुद्ध नस्ल के संरक्षण प्रदात्ता ( पशु आनुवंशिक संसाधनों का संरक्षण) होने के नाते हमें प्रोत्साहन राशि प्रति पशु और देशी नस्ल
के अनुसार एक टोकन मनी के तौर पर ही सही
प्रति गाय प्रति वर्ष देने की व्यवस्था हो जिससे हमारे इस ऐतिहासिक प्रयास (पशु आनुवंशिक संसाधनों का
संरक्षण) को सरकारी मान्यता मिले। ऐसा करने से हम और हमारी आने वाली
पीढ़ियों को गर्व का अनुभव होगा।
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